बेतरतीब सी जो भागती थी कलम
आज बगावत पर है
जुबां भी शिकायत पर है
काश लिख दूँ आज कोई ऐसी नज़्म
हो जाए अमर ये काठ की कलम
आज बगावत पर है
जुबां भी शिकायत पर है
काश लिख दूँ आज कोई ऐसी नज़्म
हो जाए अमर ये काठ की कलम
मन तो है, तुझे समंदर सा लिखूँ
ज़ुल्फ़ों को तेरी घटाओं सा लिखूँ
आँखों को तेरी किताब सा लिखूँ
हंसी को तेरी बहार सा लिखूँ
होंठों को तेरे शराब सा लिखूँ
खुश्बू को तेरी गुलाब सा लिखूँ
आवाज़ को तेरी तराना सा लिखूँ
मन तो है ......!!
ज़ुल्फ़ों को तेरी घटाओं सा लिखूँ
आँखों को तेरी किताब सा लिखूँ
हंसी को तेरी बहार सा लिखूँ
होंठों को तेरे शराब सा लिखूँ
खुश्बू को तेरी गुलाब सा लिखूँ
आवाज़ को तेरी तराना सा लिखूँ
मन तो है ......!!
मन तो है, हर जनम तुझे अपना सा लिखूँ
नींद का हसीन सपना सा लिखूँ
सर्दियों में गरम चादर का मखमली एहसास सा लिखूँ
रातों में चाँदनी रात सा लिखूँ
नदियों में निर्मल गँगा सा लिखूँ
ऋतुओं में कोमल वसंत सा लिखूँ
मन तो है.......!!
नींद का हसीन सपना सा लिखूँ
सर्दियों में गरम चादर का मखमली एहसास सा लिखूँ
रातों में चाँदनी रात सा लिखूँ
नदियों में निर्मल गँगा सा लिखूँ
ऋतुओं में कोमल वसंत सा लिखूँ
मन तो है.......!!
-कुमार
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