Wednesday, June 12, 2019

एक परिंदे की गाथा



पंछियों का एक झुण्ड
उड़ परदेस से आया था
देख एक विशाल वृक्ष
बसेरा वहीं बनाया था ।

पौ फटते ही सब परिंदे
निकल जाते अपने अपने झुंडों में
था एक परिंदा मन मौजी
खोया रहता देर तक अपने हसीं सपनों में ।

थी एक बात राज़ की उसकी
एक शाख से उसे था प्यार
वो एक वृक्ष की शाखा थी,
वो था मन मौजी बड़ा अपार ।

न जाने कब ऋतु वसंत बीत गयी
और बीता उसका अप्रवास
जाना था वापस सुदूर देश में
पर मन यहीं था शाख के पास ।

जाने की घडी खड़ी थी निकट
सामान सब तैयार था
बस शाख से आखिरी बार
मिलने का उसका अरमान था ।

थी शाख भी लथपथ पसीने से
कांति रहती थी जिस ललाट पर
आज वहीं थकान थी
जी भर देखा परिंदे ने
उसे, एक आखिरी बार ।

एक पल को तो वो भी लिपट जाती
पर लोक लाज का मान किया
शाख थी वो विशाल वृक्ष की
पर तनिक भी न अभिमान किया ।

ठिठके थे कदम शाख के
परिंदा भी मौन रहा
जुबां जो न कह पायी
आँखों से वो बयाँ किया ।

वक़्त था अब बिछड़न का
परिंदों ने वृक्ष को अंतिम प्रणाम किया
भारी मन से शाख ने भी
परिंदे को विदा किया ।


दृष्टि से ओझल होने को था
उसने मुड़ कर अंतिम बार देखा था
और उस जाते हुए परिंदे ने बस इतना देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वो शाख हवा में ।


-कुमार

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