यूँ ही रंग बिरंगे कमाते कमाते
बेघर हो गए हैं घर आते जाते
घोंसला तो है पर ठिकाना नहीं
अपने पराये हो गए हैं ठिकाना बनाते बनाते ।
समझते हैं बोली मेरी अब अनजान परिंदे भी
खुद से अनजान हो गए हैं पहचान बनाते बनाते ।
सुना था जंजीरें टूटी थी सैनतालिस में गुलामी की,
फिर गुलाम हो गए हैं आजादी का जश्न मनाते मनाते ।
हुई सांझ, लौटे परिंदे अपनो के पास, थकान मिटाने को
हम भी शायद कभी लौटे घर प्यास अपनी भुझाने को ।
राह से किसी गुजरते हुए एक सौंधी सी महक आयी है
शायद किसी माँ ने अपने हाथों से अपनों के लिए रोटी पकाई है ।
परोसे जाएंगे हमे भी छपन भोग बड़ी सी थाल में,
बैठे हैं हम भी उसी लम्हे की राह में ।
बंजारा हूँ आवारा सा, राही मैं अनजान राहों का ।
-कुमार
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